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क्या ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले के असल संघर्ष को दिखा पाती है ‘फुले’?

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Source :- BBC INDIA

फुले

इमेज स्रोत, Dancing Shiva Productions

बॉलीवुड में ताज़ा विवादों के बीच अनंत महादेवन की ‘फुले’ दो हफ़्ते की देरी के बाद शुक्रवार को आख़िरकार दर्शकों तक पहुंची.

सामाजिक कार्यकर्ता और समाज सुधारक ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले की बायोपिक में उनकी भूमिका प्रतीक गांधी और पत्रलेखा ने निभाई है. ये फ़िल्म 11 अप्रैल को ज्योतिबा फुले की 198वीं जयंती पर रिलीज़ होनी थी.

लेकिन महाराष्ट्र में हिंदू महासंघ, अखिल भारतीय ब्राह्मण समाज और परशुराम आर्थिक विकास महामंडल ने ब्राह्मणों के कथित अनुचित चित्रण पर आपत्तियां उठाईं. इसके बाद रिलीज़ को स्थगित करना पड़ा और निर्देशक से कई स्पष्टीकरण मांगे गए.

इस बीच सेंट्रल बोर्ड ऑफ़ फ़िल्म सर्टिफिकेशन (सीबीएफ़सी) ने पहले फ़िल्म को यू सर्टिफिकेट के साथ क्लियर कर दिया था. लेकिन फिर बोर्ड ने मेकर्स को री-एडिट करने के लिए कहा. इसके साथ ही कई डायलॉग और सीन में भी बदलाव करने को भी कहा गया. सीबीएफ़सी पर ये आरोप लगे कि उसने संगठनों के दबाव में आकर बदलाव करने के निर्देश दिए हैं.

बदलाव में जैसे- ‘झाड़ू लिए हुए एक आदमी’ के सीन को ‘लड़कों के सावित्रीबाई पर गोबर फेंकने’ के सीन से बदलने के लिए बोला गया. कुछ डायलॉग जैसे ‘जहां शूद्रों को झाड़ू बांधकर चलना चाहिए’ को ‘सबसे दूरी बनाकर रखनी चाहिए’ और ‘3000 साल पुरानी गुलामी’ को ‘कई साल पुरानी’ से बदला गया.

जाति व्यवस्था के बारे में एक वॉयसओवर को हटाने को कहा गया. इसके साथ ही जाति समूहों और शब्दों जैसे ‘महार’, ‘मांग’, ‘पेशवाई’ और ‘जाति की मनु व्यवस्था’ को हटाने के लिए बोला गया.

ये मामला सेंसर बोर्ड के संध्या सूरी की फ़िल्म ‘संतोष’ की रिलीज़ को रोके जाने के तुरंत बाद सामने आया है. इसमें महिलाओं के प्रति नफरत, इस्लामोफोबिया, जाति-आधारित भेदभाव और भारतीय पुलिस की हिंसा को दिखाया गया है.

यही वजह है कि सेंसर बोर्ड में ब्राह्मणों और सवर्णों के प्रभुत्व पर कई लोगों ने सवाल उठाए हैं.

पिछले साल आई फ़िल्म पर नहीं हुआ विवाद

ज्योतिबा फुले

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आचार्य अत्रे की 1954 की मराठी फ़िल्म महात्मा फुले का सब्जेक्ट ज्योतिबा फुले रहे हैं. इस फ़िल्म ने विवादों से दूर रहते हुए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों में राष्ट्रपति से सिल्वर मेडल हासिल किया.

श्याम बेनेगल की ‘भारत एक खोज’ सिरीज़ के एक एपिसोड में सदाशिव अमरापूरकर ने मुख्य भूमिका निभाई थी. अन्य बातों के अलावा उसमें पिछड़े वर्गों के लिए समानता, न्याय और शिक्षा लाने के महात्मा फुले के मिशन को दिखाया गया था.

पिछले साल निलेश जलमकर ने मराठी भाषा में ज़्यादा मज़बूत फ़िल्म ‘सत्यशोधक’ बनाई थी. इस फ़िल्म में संदीप कुलकर्णी ने ज्योतिबा फुले और राजश्री देशपांडे ने सावित्रीबाई फुले का किरदार निभाया था.

लेकिन उस फ़िल्म में वैसे बदलाव नहीं हुए जैसे ‘फुले’ में हुए.

पर बात जब महादेवन की फुले की होती है तो कलाकार की अभिव्यक्ति की आज़ादी के अलावा अथॉरिटी के नियंत्रण पर भी बहस होती है.

फ़िल्म में एडिट की मांग भारत में जाति व्यवस्था के जारी शिकंजे का प्रमाण है. जहां कुछ सशक्त लोगों के आदेश को न केवल वास्तविकता में बल्कि फ़िल्म के संदर्भ में भी तवज्जो दी जाती है.

और हम अभी तक जाति आधारित बर्बरता की घटनाओं पर बात नहीं कर रहे हैं. उत्तर प्रदेश के रामपुर में एक 11 साल की विकलांग दलित लड़की के साथ बलात्कार की घटना उस वक्त ही न्यूज़ में आई जब फुले फ़िल्म सुर्खियों में है.

उठते हैं ये सवाल

सावित्रीबाई फुले

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तो ये सवाल तो खड़ा होता ही है कि 19वीं सदी के दो नायकों जिन्होंने सामाजिक बदलाव, बाल विवाह, जाति और लिंग आधारित भेदभाव, महिला के अधिकारों और उनकी शिक्षा की लड़ाई लड़ी उन्हें नुक़सान पहुंचाया जा रहा है.

ज्योतिबा के सपने को फ़िल्म के ट्रेलर के साथ ही समझा जा सकता है, जिसमें कहा गया, “एक ऐसा समाज हो जहां कोई प्रधान नहीं. सब समान हों.”

रिवॉल्यूशन की पहल में ब्राह्मणवादी व्यवस्था को चुनौती देना मुख्य था.

तो फिर आज के समय के प्रभावशाली ब्राह्मणों के कहने पर उनके जीवनभर के काम का जो सार था उसे हटाने की बात क्यों हुई?

यह जाति-आधारित उत्पीड़न के पूरे इतिहास को एक साथ मिटाने की कोशिश भी है.

हकीकत में तो महादेवन की लंबी, बोझिल और थोड़ी नीरस फ़िल्म ब्राह्मणों को जाति व्यवस्था के संरक्षक के रूप में दिखाती है.

जॉय सेनगुप्ता ने भेदभाव में विश्वास रखने वाले ब्राह्मण का किरदार निभाया है जो दलित ज्योतिबा की परछाई को ख़ुद पर नहीं पड़ने देना चाहता. इसके साथ ही दलितों को सामुदायिक कुएं से पानी भरने से रोक दिया जाता है.

फुले समाज में व्याप्त जाति बंधन के दायरे को ब्रिटिश शासन से जोड़कर देख पाते हैं. वो बताते हैं कि कैसे अंग्रेज़ों ने सामाजिक असमानताओं का इस्तेमाल विभाजन और शासन करने के साथ वंचितों को ईसाई धर्म में परिवर्तित करने के लिए किया.

फुले ने इन कोशिशों को समझ लिया. हालांकि उन्होंने अन्यायपूर्ण सामाजिक हकीकत को बदलने के लिए प्रगतिशील अंग्रेज़ी शिक्षा प्रणाली का भी चतुराई से इस्तेमाल किया.

बंटा हुआ नज़र आता है फ़िल्म समुदाय

फुले

इमेज स्रोत, ANI

फ़िल्में बनाने वाला समुदाय भी सेंसर बोर्ड पर नाराज़गी व्यक्त करते हुए बिखरा हुआ नज़र आता है.

फ़िल्म निर्माता ओनिर ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर पोस्ट किया, “यह कितनी शर्म की बात है कि सीबीएफ़सी को ब्राह्मणवादी प्रतिक्रिया के आगे झुकना पड़ा. दलितों की भावना और ऐतिहासिक सत्य कोई मायने नहीं रखता. ये सत्ता की संरचना को समर्थन करने वाली यथास्थिति को बिना किसी सवाल के जारी रखने जैसा है.”

पिछले हफ्ते फ़िल्म निर्माता अनुराग कश्यप के सोशल मीडिया पर फुले को लेकर ब्राह्मणों और सेंसर के ख़िलाफ़ साधा गया निशाना फ़िल्म और विवाद से भी बड़ा हो गया.

उन्होंने लिखा, “भाई अगर जातिवाद नहीं होता इस देश में तो उनको क्या ज़रूरत थी लड़ने की. अब ये ब्राह्मण लोग को शर्मा आ रही है या वो शर्म में मर जा रहे हैं, या फिर एक अलग ब्राह्मण भारत में जी रहे हैं जो हम देख नहीं पा रहे हैं.”

इस पर कई लोगों ने नाराज़गी जताई. जयपुर से लेकर इंदौर तक उनके ख़िलाफ़ पुलिस में शिकायत दर्ज कराई गई. बाद में कश्यप को अपने गुस्से के लिए माफी मांगनी पड़ी.

वहीं महादेवन ने दावा किया कि ब्राह्मण बिना फ़िल्म देखे ही प्रतिक्रिया दे रहे हैं और ट्रेलर का गलत मतलब निकाला गया है.

मिड-डे के साथ एक इंटरव्यू में उन्होंने अखिल भारतीय ब्राह्मण समाज के सदस्यों से मुलाकात के बारे में बताया. और कहा कि उन्होंने उन्हें बताया कि ब्राह्मण असल में ज्योतिबा के मिशन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे.

लेकिन जिस बात ने इस आग में घी डालने का काम किया है वो है फ़िल्म निर्माता के अपनी ब्राह्मण पहचान का दावा करना. उन्होंने कहा, “मैं एक कट्टर ब्राह्मण हूं. मैं अपने समुदाय को क्यों बदनाम करूंगा?”

ये ऐसा भी मामला है कि एक फ़िल्म निर्माता जो जाति-व्यवस्था को ख़त्म करने में ज़िंदगी लगा देने वाले दूरदर्शक पर फ़िल्म बना रहा हो और उसी समय अपनी जातिगत पहचान को दिखा रहा हो.

क्या हम अब भी कह सकते हैं कि भारत में जाति व्यवस्था नहीं है? महात्मा ज्योतिबा फुले का निरंतर प्रासंगिक होना ही इस सवाल का जवाब है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

SOURCE : BBC NEWS