Source :- BBC INDIA

इमेज स्रोत, Reuters
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका में आने वाले लगभग हर उत्पाद पर कम से कम दस फ़ीसदी टैरिफ़ लगाने का फ़ैसला लिया है.
इस कदम के पीछे उनकी मंशा रोज़गार और काम को अमेरिका के अंदर बनाए रखने की है, ना कि आप्रवासियों को बाहर रखने की.
मगर, यह फ़ैसला अमेरिका को संरक्षणवाद के मामले में एक सदी पीछे ले जाता दिखता है.
हालांकि, इस सप्ताह जो कुछ भी हुआ, वो केवल अमेरिका का वैश्विक व्यापार युद्ध शुरू करना या शेयर बाज़ार में उथल-पुथल मचाना भर नहीं था.

बीबीसी हिंदी के व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें

यह दुनिया की सबसे बड़ी ताकत का वैश्वीकरण की उस प्रक्रिया से मुंह मोड़ने जैसा था, जिसका ना सिर्फ़ वो खुद समर्थक रहा है, बल्कि इससे दशकों तक उसने मुनाफ़ा भी कमाया है.
मगर, ऐसा करके व्हाइट हाउस ने पारंपरिक अर्थशास्त्र और कूटनीति से जुड़े बुनियादी सिद्धांतों से भी मुंह मोड़ लिया है.
मुक्त व्यापार पर बहस

इमेज स्रोत, Getty Images
दरअसल, राष्ट्रपति ट्रंप ने टैरिफ़ की घोषणा के दौरान साल 1913 के बारे में ख़ूब बातें कीं. यह वो महत्वपूर्ण पल था, जब अमेरिका ने संघीय आयकर सिस्टम बनाया था और अपने टैरिफ़ में काफ़ी कटौती की थी. इससे पहले, अमेरिकी सरकार को मुख्य रूप से टैरिफ़ के ज़रिए ख़ूब धन मिलता था. यह अमेरिका के पहले वित्त मंत्री एलेक्ज़ेंडर हैमिल्टन की रणनीति पर आधारित था. ये नीतियां पूरी तरह संरक्षणवादी थीं.
व्हाइट हाउस ने इससे बुनियादी सबक यह सीखा कि ऊंचे टैरिफ़ ने अमेरिका को पहली बार ‘महान’ बनाया था.
इसके अलावा, अमेरिका को यह भी समझ आया कि उसको संघीय आयकर की आवश्यकता नहीं थी.
अटलांटिक के इस तरफ, वैश्वीकरण और मुक्त व्यापार की बुनियाद में 19वीं सदी के ब्रिटिश अर्थशास्त्री डेविड रिकार्डो के सिद्धांत हैं. खासतौर पर, 1817 का ‘तुलनात्मक लाभ’ का सिद्धांत.
इसमें कुछ समीकरण हैं, मगर मूलभूत बातें समझने के लिहाज से सरल हैं. जैसे- अलग-अलग देश अपने प्राकृतिक संसाधनों और आबादी के कौशल के आधार पर अलग-अलग वस्तुएं बनाने में माहिर होते हैं.
मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि पूरी दुनिया और इसमें मौजूद देश बेहतर हालात में होंगे, यदि हर व्यक्ति उस काम में विशेषज्ञता हासिल कर ले, जिसमें वो अच्छा हो.
इसके बाद वो मुक्त तौर पर व्यापार कर सकेगा.
ब्रिटेन में यह राजनीति और अर्थशास्त्र के बीच का आधार है. वैसे ज़्यादातर दुनिया अब भी ‘तुलनात्मक लाभ’ में यकीन करती है. यह वैश्वीकरण का बौद्धिक मूल है.
लेकिन, अमेरिका कभी भी पूरी तरह से इस बात पर सहमत नहीं हुआ. अमेरिका के मन में इस मामले में जो अनिच्छा थी, वो कभी भी ख़त्म नहीं हुई.
‘रेसिप्रोकल’ टैरिफ़ के पीछे का तर्क

इमेज स्रोत, Getty Images
इन तथाकथित ‘रेसिप्रोकल’ टैरिफ़ के औचित्य को समझना ज़रूरी है. वैसे प्रेस कॉन्फ़्रेंस से एक घंटे पहले व्हाइट हाउस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने इस बात को खुलकर समझाया था.
उन्होंने कहा, “यह टैरिफ़ हर देश के हिसाब से तय किए जाते हैं, जिनकी गणना आर्थिक सलाहकार परिषद द्वारा की जाती है. वो जिस मॉडल का उपयोग करते हैं, वो इस अवधारणा पर आधारित है कि हमारा जो व्यापार घाटा है, वो अनुचित व्यापार के तरीकों और हर तरह की धोखाधड़ी का जोड़ है.”
यह अति महत्वपूर्ण है. व्हाइट हाउस के मुताबिक़, अमेरिका आपको जितना सामान बेचता है, उससे ज़्यादा माल अमेरिका को बेचना, उसकी परिभाषा के अनुसार ‘धोखाधड़ी’ है.
इसी असंतुलन को ठीक करने के लिए टैरिफ़ की गणना की जानी चाहिए.
इसी दीर्घकालिक नीति का लक्ष्य 1.2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के व्यापार घाटे को शून्य तक ले जाना है.
यह समीकरण उन देशों को निशाना बनाने के लिए तैयार किया गया, जो सरप्लस स्थिति में हैं, ना कि उन देशों के लिए जिनके पास व्यापारिक बाधाएं हैं.
हालांकि, इसने डेटा के आधार पर ग़रीब देशों, उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं और छोटे अप्रासंगिक द्वीपों को भी निशाने पर लिया.
वैसे इस बात के कई कारण हैं कि कुछ देश सरप्लस स्थिति में है, वहीं कुछ घाटे में हैं.
दरअसल, अलग-अलग देश, अलग-अलग उत्पाद बनाने में अच्छे होते हैं, और उनके पास अलग-अलग प्राकृतिक और मानव संसाधन हैं. यही व्यापार का आधार है.
मगर, ऐसा लगता है कि अमेरिका का अब इसमें भरोसा नहीं रहा है.
वास्तव में यदि यही तर्क केवल सेवाओं के व्यापार के मामले में लागू किया जाए, तो अमेरिका के पास इस मामले में 280 बिलियन डॉलर का सरप्लस है.
इनमें आर्थिक सेवाएं और सोशल मीडिया टेक्नोलॉजी जैसे क्षेत्र शामिल हैं. बावजूद इसके सेवा व्यापार को व्हाइट हाउस ने तमाम तरह की गणनाओं से बाहर रखा है.
‘चीनी झटका’ और उसका प्रभाव

इमेज स्रोत, Getty Images
अमेरिका के उपराष्ट्रपति जेडी वेंस ने पिछले महीने एक भाषण में कहा था कि वैश्वीकरण इस प्रशासन की नज़र में विफल रहा है. क्योंकि, विचार तो यह था कि “अमीर देश वैल्यू चेन में आगे बढ़ेंगे, जबकि ग़रीब देश आसान चीजें बनाएंगे.”
लेकिन, खासतौर पर चीन के मामले में ऐसा नहीं हुआ. इसलिए, अमेरिका इस दुनिया से निर्णायक तौर पर दूर हो रहा है. अमेरिका के लिए डेविड रिकार्डो नहीं बल्कि डेविड ऑटोर महत्व रखते हैं.
डेविड ऑटोर मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी के अर्थशास्त्री हैं. उन्होंने ‘चीन शॉक’ शब्द गढ़ा है.
2001 में, जब दुनिया 9/11 की घटना से विचलित थी, तब चीन विश्व व्यापार संगठन में शामिल हो गया था.
इसके बाद, अमेरिकी बाज़ार में चीन को अपेक्षाकृत स्वतंत्र पहुंच मिलनी शुरू हो गई, और वैश्विक अर्थव्यवस्था में बदलाव शुरू हो गए.
अमेरिका में लाइफ स्टाइल, उन्नति, मुनाफ़ा और शेयर बाज़ार में तेज़ी आ गई, क्योंकि चीन के वर्क फ़ोर्स ने ग्रामीण इलाक़ों से तटीय कारखानों की ओर पलायन करना शुरू किया, ताकि अमेरिकी उपभोक्ताओं के लिए वे सस्ते दामों पर निर्यात करने के लिए उत्पाद बना सकें.
यह ‘तुलनात्मक लाभ’ की कार्यप्रणाली का एक बेहतरीन उदाहरण था.
चीन ने ट्रिलियन डॉलरों की कमाई की, इनमें से ज़्यादातर हिस्सा अमेरिका में सरकारी बॉन्ड के तौर पर फिर से निवेश किया गया. इससे ब्याज़ दरों को कम रखने में भी मदद मिली.
हर कोई विजेता था, मगर पूरी तरह से नहीं. अमेरिकी उपभोक्ता तो सस्ते उत्पादों के साथ बड़े पैमाने पर अमीर हो गए, लेकिन इसका नतीजा यह हुआ कि पूर्वी एशिया में मैन्युफैक्चरिंग का बहुत नुक़सान हुआ.

ऑटोर की गणना के मुताबिक़, साल 2011 तक इस “चीनी शॉक” के कारण अमेरिका में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में 10 लाख नौकरियां और कुल मिलाकर 24 लाख नौकरियां खत्म हो गईं.
यह झटके भौगोलिक रूप से रस्ट बेल्ट और दक्षिण इलाक़े के लोगों को लगे हैं. नौकरियों और मज़दूरी पर कारोबारी झटके का असर लगातार बना रहा.
ऑटोर ने पिछले साल अपने विश्लेषण को और अपडेट किया. उन्होंने पाया कि ट्रंप प्रशासन के पहले कार्यकाल में टैरिफ़ के साथ छेड़छाड़ का असल आर्थिक प्रभाव बहुत कम था.
इसने प्रभावित इलाक़ों में डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थन को कम किया और 2020 के राष्ट्रपति चुनाव में ट्रंप के लिए समर्थन को बढ़ाया.
इस सप्ताह की बात करें तो कार कर्मचारियों के साथ ही तेल और गैस कर्मचारियों की भीड़ व्हाइट हाउस में टैरिफ़ का जश्न मना रही है.
वादा यह है कि ये नौकरियां वापस आएंगी, न केवल रस्ट बेल्ट में, बल्कि पूरे अमेरिका में. यह वास्तव में कुछ हद तक संभव भी है.
विदेशी कंपनियों को राष्ट्रपति का स्पष्ट संदेश है कि अपनी फैक्ट्रियों को अमेरिका में लगाकर टैरिफ़ से बचें.
राष्ट्रपति ट्रंप का पिछली आधी सदी के मुक्त व्यापार को अमेरिका में लूटपाट करने वाला बताना स्पष्ट रूप से पूरी तस्वीर पेश नहीं करता है.
भले ही यह ख़ास इलाक़ों, सेक्टर्स या ख़ास आबादी के लिए कारगर नहीं रहा हो.
अमेरिकी सेवा क्षेत्र ने खूब तरक्की की है. इसने वॉल स्ट्रीट और सिलिकॉन वैली से दुनिया पर अपना दबदबा बनाया है.
अमेरिकी उपभोक्ता ब्रांड्स ने चीन और पूर्वी एशिया तक फैली बेहतरीन सप्लाई चेन का इस्तेमाल कर अपने महत्वाकांक्षी अमेरिकी उत्पादों को हर जगह बेचकर खूब लाभ कमाया.
अमेरिकी अर्थव्यवस्था ने वास्तव में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया. इसमें समस्या बस यह थी कि यह अलग-अलग सेक्टर्स के बीच समान रूप से नहीं बंटा था.
इसमें अमेरिका में जो कमी थी, वह देश भर में उस पैसे को बांटने की कमी थी. यह अमेरिका की राजनीतिक पसंद को दर्शाता था.
पहला सोशल मीडिया ट्रेड वॉर

इमेज स्रोत, Getty Images
अब जब अमेरिका अचानक संरक्षणवाद के झटके के साथ अपने मैन्युफैक्चरिंग को फिर से शुरू करने का विकल्प चुनता है, तो अन्य देश जिसने अमेरिका को अमीर बनाया है, उनके पास भी विकल्प है कि वे पूंजी और व्यापार के प्रवाह का समर्थन करें या न करें.
इस मामले में दुनियाभर के उपभोक्ताओं के पास भी विकल्प हैं.
आख़िरकार यह पहला सोशल मीडिया ट्रेड वॉर है. टेस्ला की बिक्री में गिरावट और अमेरिकी सामान के ख़िलाफ़ कनाडा की प्रतिक्रिया काफ़ी लंबा असर कर सकती है.
यह किसी भी काउंटर-टैरिफ़ जितना ही ताक़तवर होगा.
अमेरिकी उपभोक्ताओं के लिए माल उत्पादन करने वाले इन देशों के पास व्यापार के अलावा भी विकल्प हैं. अब नए गठबंधन बनेंगे और आगे बढ़ेंगे.
राष्ट्रपति की इस बात को लेकर संवेदनशीलता तब ज़ाहिर हुई, जब उन्होंने धमकी दी कि अगर यूरोपीय संघ और कनाडा जवाबी कार्रवाई के लिए एक साथ आएं, तो वो टैरिफ़ बढ़ा देंगे.
ट्रेड वॉर के खेल सिद्धांत में भरोसे का बड़ा महत्व होता है. अमेरिका के पास एक बेजोड़ सैन्य ताक़त और तकनीक है, जो उसकी मदद करती है.
लेकिन, एक मनमाने ढंग से वैश्विक व्यापार व्यवस्था को बदलना, दूसरे पक्ष को विरोध करने के लिए प्रोत्साहित करेगा.
यह ख़ास तौर पर तब हो सकता है, जब बाक़ी दुनिया सोचे कि राष्ट्रपति ट्रंप अपनी बंदूक से अपने पैर पर ही निशाना साध रहे हैं.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
SOURCE : BBC NEWS